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सिंगरौली में खत्म हो जाएंगे बैगा आदिवासी

नवभारत टाइम्स | 17 Oct 2013, 1:00 am
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मध्य प्रदेश के बैढन कस्बे की हरी-भरी पहाड़ियां देखकर लगता नहीं कि यह देश के सर्वाधिक प्रदूषित अंचलों में शामिल है। रास्ते में पड़ने...

baiga aadivasi would be finished from singrauli
सिंगरौली में खत्म हो जाएंगे बैगा आदिवासी
अंबरीश कुमार।।

मध्य प्रदेश के बैढन कस्बे की हरी-भरी पहाड़ियां देखकर लगता नहीं कि यह देश के सर्वाधिक प्रदूषित अंचलों में शामिल है। रास्ते में पड़ने वाली कई नदियों का पानी पूरी तरह काला देखकर हैरानी हुई। पता चला यह कोयला खदानों के प्रदूषण की वजह से हुआ है। सिंगरौली का जिला मुख्यालय बैढन कोयले और बिजली घरों की फ्लाईऐश से घिरा हुआ है। सासन अल्ट्रा मेगा पावर प्लांट (निर्माणाधीन) से लेकर मझगवां, सिद्धिकलां,गहिल्गढ़ और खैराही में एस्सार समेत कई बिजलीघर अभी बन रहे हैं। सासन प्लांट ने तो कोयला ले जाने के लिए करीब चौदह किलोमीटर लंबी खुली कन्वेयर बेल्ट लगा रखी है। यहां से उठने वाली कोयले की धूल पूरे इलाके में लोगों का जीना मुहाल कर देगी। कई आदिवासी परिवार इन योजनाओं के चलते यहां से जा भी चुके हैं।

निजी कंपनियों का खौफ
पहले इन खदानों पर नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन और नार्दन कोल फील्ड्स की इजारेदारी थी पर अब इसमें निजी क्षेत्र भी आ गया है। यहां रहने वाले आदिवासियों की नाराजगी पहले इन सरकारी उपक्रम के अफसरों के व्यवहार को लेकर रहती थी पर अब निजी क्षेत्र के आ जाने के बाद वे उन्हीं अफसरों की तारीफ़ करते नजर आते हैं। कोयला खदानों के चलते इन इलाकों से लोगों का पलायन पहले भी होता था पर उन्हें कुछ मुआवजा और रहने की जगह मिल जाती थी। लेकिन निजी क्षेत्र की कंपनियां नियम-कायदों को ताक पर रख कर काम कर रही हैं। इन्हें न तो बिजली और कोयला परियोजनाओं से बेघर होने वालों की चिंता है और न पर्यावरण की। इस अंचल में रिहंद का पानी इतना जहरीला हो चुका है कि उसकी मछली तक कोई नहीं खाता। पिछले कुछ वर्षों में तरह-तरह की बीमारियों से पचास से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है।

इलाके में नया संकट बैगा आदिवासियों के विलुप्त हो जाने का है। कोयला और बिजली परियोजनाओं में विस्थापित दर्जनों बैगा परिवारों ने अपनी जमीन छूटने के बाद नए सिरे से जीवन शुरू करने का प्रयास किया, पर उनसे कहीं ज्यादा परिवार लापता हो गए। सिंगरौली में मुड़वानी के पास बसे आदिवासियों के गांव में मुखिया छोटेलाल बैगा ने अपनी बिरादरी की व्यथा सुनाई। खपरैल के साफ-सुथरे घर के आंगन में सूख रहा गेहूं राशन की दुकान से ख़रीदा गया था। छोटेलाल बैगा ने बताया कि उनके नाम कोई जमीन नहीं है। आदिवासियों को न मुआवजा मिलता है, न उनके पुनर्स्थापन के लिए कुछ किया जाता, क्योंकि उनके पास अपनी जमीन के कागजात ही नहीं हैं। फिलहाल एनसीएल ने जो जगह दी है वहां अगले विस्थापन तक वे रह सकते हैं। सामने कोयले की खदान से निकली मिट्टी के पहाड़ की तरफ इशारा करते हुए वे बोले कि कई घर इसके मलबे में दब गए और कई लोग घायल हो गए, क्योंकि कुछ आदिवासी अपने जंगल को छोड़ना नहीं चाहते थे। बीमारों को नेहरू अस्पताल में भर्ती करने के लिए ढाई हजार रुपए लिए गए और दवा आदि के अलग से।

मझगवां में बनी विस्थापित बस्ती में डेढ़ हजार से ज्यादा परिवार 60.90 वर्गफुट जमीन पर बने कंक्रीट के दड़बे में रहने को विवश हैं। इस छोटी सी जगह के आधे हिस्से में दो छोटे-छोटे कमरे और एक छोटी सी रसोई बना दी गई है। जरूरत के मुताबिक कोई भी निर्माण कार्य करने की मनाही है। न कोई पानी का कनेक्शन, न बिजली की सुविधा। काम करने की जगहों से 20 किलोमीटर दूर इस बस्ती में दिनभर अपराधियों का जमावड़ा रहता है। पुरुषों के काम पर चले जाने के बाद स्त्रियां और बच्चे सभी तरह के शोषण के शिकार होते हैं। दूसरी तरफ, यह विस्थापित बस्ती जिनकी जमीन पर बसाई गई है वे विस्थापितों को ही अपना दुश्मन मानते हैं क्योंकि कंपनी ने यह बस्ती भी पुलिसिया डंडे के जोर पर बनाई है, जमीन के मालिकों को कीमत देकर नहीं। पूरी कालोनी में सरकारी मशीनरी की सक्रियता देशी शराब के अड्डों के सिवाय और कहीं नहीं है, और वह भी सिर्फ हफ्ता वसूली के लिए।

उजाड़े की बीमारियां
ऐसी बस्तियों में रहने वाले परिवारों का आग्रह था कि उनके विस्थापन को सिर्फ जमीन या रोजगार से होने वाला विस्थापन न समझा जाय क्योंकि इसने न केवल उनका परिवेश, संस्कृति और जीने का तरीका बदला है, बल्कि उनके जिंदा रहने पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। कोयला खदानों और बिजली परियोजनाओं के राख बंधों के चलते फ्लाईऐश अब धीरे धीरे भूजल में घुलता जा रहा है। इसके चलते पानी में पारा, लिग्नाइट और लोहे की मात्रा बढ़ती जा रही है। ऐसे में सबसे ज्यादा दिक्कत उन आदिवासियों को हो रही है जो प्रदूषण की वजह से बार-बार बीमार पड़ते है और अपना इलाज न करा पाने की वजह से पलायन इलाका ही छोड़कर चले जाते हैं। आदिवासियों के नए बसे गांवों में इनकी कम होती आबादी इसका साफ संकेत है ।
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